एक आदिवासी कबीला जो अंतिम संस्कार के समय खाता है इंसानी दिमाग

रोचक

पापुआ न्यू गिनी (Papua New Guinea) में करीब 312 जनजातियां रहती हैं. यहां रहने वाली एक जनजाति को अपने अजीबो-गरीब रिवाज की वजह से जाना जाता है. अंतिम संस्कार के वक्त इस जनजाति में इंसान का दिमाग खाने की प्रथा थी.

ब्रिटेन और पापुआ न्यू गिनी के वैज्ञानिक फोर जनजाति (Fore Tribe) के लोगों पर शोध किया गया. शोध से पता चला है कि ये आदिवासी जिनके आहार में उनके मृत रिश्तेदारों का दिमाग भी शामिल था, इन्होंने कुरु नाम की बीमारी के लिए आनुवंशिक प्रतिरोधक क्षमता (Genetic resistance) विकसित कर ली है. यह बीमारी ‘मैड काउ’ डिज़ीज़ से मिलती जुलती है. इस शोध से पार्किंसंस रोग और डिमेंशिया जैसे ‘प्रायन’ रोगों (Prion diseases) के नए इलाज खोजने में भी मदद मिल सकती है.

फोर जनजाति में जब कोई अंतिम संस्कार होता था, तो वहां इस तरह की दावतें होती थीं, जहां पुरुष अपने मृतक रिश्तेदारों का मांस खाते थे, जबकि महिलाएं उनका दिमाग. यह प्रथा अपने प्रियजनों के प्रति सम्मान के प्रतीक के तौर पर मानी जाती थी. इस जनजाति का मानना था कि अगर शरीर को दफनाया जाता है या किसी प्लैटफॉर्म पर रखा जाता है, तो इसे कीड़े खाते हैं. इससे बेहतर तो ये है कि शरीर को वे लोग खाएं जो मृतक से प्यार करते हैं.

महिलाएं, दिमाग को निकालकर उसमें फर्न मिलातीं और फिर इसे बांस में पकाया जाता. पित्ताशय को छोड़कर सब कुछ भूनकर खा लिया जाता. लेकिन इस जनजाति को यह नहीं पता था कि मानव मस्तिष्क में एक घातक अणु (molecule) होता है, जो खाए जाने पर मौत का कारण बनता है.

आदिवासियों में होने लगी रहस्यमयी बीमारी

न्यू गिनी के जिला चिकित्सा अधिकारी ने देखा कि पापुआ न्यू गिनी के ऊपरी इलाकों में रहने वाली फोर जनजाति के कुछ लोग एक घातक और रहस्यमयी बीमारी से पीड़ित हो रहे थे. इससे वे बुरी तरह कमज़ोर हो जाते थे. हालात ये थे कि इससे पीड़ित लोग पहले चलने-फिरने की क्षमता खो देते थे और इसके बाद खाना निगलना या चबाना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता था. इस वजह से उनका वजन कम हो जाता और बाद में मौत हो जाती थी. इस जनजाति ने इस बीमारी को ‘कुरु’ नाम दिया, जिसका अर्थ है ‘डर से कांपना’. इस बीमारी की वजह से हर साल इस जनजाति के करीब 2 प्रतिशत लोगों की मौत हो जाती थी.

प्रायन्स’ प्रोटीन ने फैलाई बीमारियां

अब यह पता चल चुका है कि ‘प्रायन्स’ नामक प्रोटीन की वजह से होने वाली कई बीमारियों में से एक कुरू भी है. जिसमें रीप्रोड्यूस करने और संक्रामक बनने की क्षमता होती है. प्रियन आमतौर पर सभी जीवित प्राणियों के शरीर से बनते हैं, लेकिन उन्हें इस तरह से डिफॉर्म भी किया जा सकता है कि वे अपने होस्ट के खिलाफ काम करने लगते हैं. यह डिफॉर्म प्रायन तब वायरस की तरह बन जाता है, यह शरीर पर हमला करता है और आसपास के जीवों को भी प्रभावित करता है और बीमारी फैलने लगती है.

आज सबसे प्रसिद्ध प्रायन रोग ‘मैड काउ डिजीज’ है, जिसे बोवाइन स्पॉन्जिफॉर्म एन्सेफैलोपैथी (Bovine spongiform encephalopathy-BSE) कहा जाता है, जो 1980 के दशक के दौरान मवेशियों में फैल गया था. 1986 में बीएसई के प्रकोप की वजह से सैकड़ों जानवरों को मार देना पड़ा था. इसके बाद, 1990 की शुरुआत में पालतू बिल्लियां मरना शुरू हो गई थीं क्योंकि पेट फूड में बीएसई से संक्रमित मवेशियों का मांस था. 1993 तक, 120,000 जानवरों को बीएसई से संक्रमित पाया गया था, जिसके बाद, ब्रिटिश सरकार ने जानवरों को मांस और हड्डी मिला हुआ खाना खिलाने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

इसके बाद इस बीमारी से इंसान भी संक्रमित हुए थे. इसके लिए कई प्रयास किए गए और बीएसई के मामले 2012 तक जानवरों में दिखाई देते रहे, हालांकि तब तक बीमारी काफी कम हो गई थी.

आदिवासियों ने विकसित की आनुवंशिक प्रतिरोधक क्षमता

अब यह पाया गया है कि डिफॉर्म prions के खिलाफ एक तरह का जेनेटिक प्रोटेक्शन मौजूद है और न्यू गिनी में फोर आदिवासियों के मामले से यह भी संकेत मिलता है कि एक समय में मनुष्यों के बीच नरभक्षण होता था. 1950 के दशक में कुरु के प्रकोप के बाद, न्यू गिनी में मानव मस्तिष्क खाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और बीमारी तब गायब होने लगी थी. हालांकि, जनजाति की जांच करने वाले वैज्ञानिकों ने अब पता लगाया है कि फोर जनजाति की दिमाग-खाने की आदतों की वजह से कुरु और प्रायन की वजह से होने वाली अन्य बीमारियों के लिए आनुवंशिक प्रतिरोधक क्षमता का विकास हुआ है.

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी की प्रायन यूनिट के जॉन कोलिंग का कहना है कि उनकी टीम अब आगे की जांच कर रही है, क्योंकि इस खोज से वैज्ञानिकों को अल्जाइमर और पार्किंसंस जैसी न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारियों का इलाज करने में मदद मिल सकती है. इस शोध के नतीजे नेचर जर्नल में प्रकाशित किए गए हैं.