20 और 21 नवंबर को दिल्ली (Delhi) में पहली बार आर्टिफिशियल बारिश होगी. यानी हवाई जहाज से बादलों में केमिकल डालकर क्लाउड सीडिंग की जाएगी. फिर वही बादल बारिश के रूप में राजधानी की जमीन पर बरसेंगे. बारिश कराने का जिम्मेदारी IIT Kanpur की है. लेकिन सवाल ये है कि क्या इससे प्रदूषण का पर्मानेंट इलाज हो जाएगा?
समस्याएं दो प्रकार की आएंगी. एकदम सीधी-सीधी. पहली हवा की गति और दिशा. दूसरी आसमान में 40 फीसदी बादल हों और उसमें लिक्विड हो. यानी पानी. अब इन दोनों स्थितियों में थोड़ा बहुत उन्नीस-बीस चल जाएगा, लेकिन ज्यादा अंतर हुआ तो दिल्ली पर कृत्रिम बारिश कराने का ट्रायल बेकार साबित हो सकता है. या गलत असर हो सकता है.
दिल्ली सरकार ने इस बारे में जुलाई से अब तक आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों के साथ तीन बार बैठक की. फिर यह फैसला लिया है. हालांकि इसके लिए अभी दिल्ली सरकार को सुप्रीम कोर्ट से अनुमति लेनी है. अगर सुप्रीम कोर्ट से परमिशन मिल जाता है तो 20-21 नवंबर को दिल्ली के आसमान से नकली बारिश होगी.
क्या है आर्टिफिशियल रेन यानी कृत्रिम बारिश?
कृत्रिम बारिश के लिए वैज्ञानिक आसमान में एक तय ऊंचाई पर सिल्वर आयोडाइड, ड्राई आइस और साधारण नमक को बादलों में छोड़ते हैं. इसे क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) कहते हैं. इसके जरूरी है कि आसमान में कम से कम 40 फीसदी बादल हों. जिनमें थोड़ा पानी मौजूद हो. दिक्कत ये है कि नवंबर में राजधानी के ऊपर बादलों की मात्रा कम रहती है. इसलिए क्लाउड सीडिंग में प्रॉब्लम आ सकती है.
क्लाउड सीडिंग के लिए बादलों में पानी जरूरी
क्लाउंड सीडिंग तभी संभव हो पाएगा, जब आसमान में 40 फीसदी बादल हों. उन बादलों में पानी यानी लिक्विड की मात्रा हो. जरूरी नहीं कि इसके लिए विमान से बादलों के बीच उड़ान भरी जाए. यह काम बैलून या रॉकेट से भी किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए बादलों का सही सेलेक्शन जरूरी है. सर्दियों में बादलों में पर्याप्त पानी नहीं होता. सर्दियों में इतनी नमी नहीं होती कि बादल बन सके. मौसम ड्राई होगा तो पानी की बूंदे जमीन पर पहुंचने से पहले ही भांप बन जाएंगी.
यह नहीं पता कि इस बारिश से प्रदूषण कितना कम होगा?
अभी तक इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिले हैं कि इस तरह की बारिश से प्रदूषण कम होगा या नहीं. या फिर कितना कम होगा. असल में क्लाउड सीडिंग के लिए छोटे सेसना या उसके जैसे विमान से सिल्वर आयोडाइड को हाई प्रेशर वाले घोल का बादलो में छिड़काव करना होता है. इसके लिए विमान हवा की दिशा से उल्टी दिशा में उड़ान भरता है.
सही बादल से सामना होते ही केमिकल छोड़ दिया जाता है. इससे बादलों का पानी जीरो डिग्री सेल्सियस तक ठंडा हो जाता है. जिससे हवा में मौजूद पानी के कण जम जाते हैं. कण इस तरह से बनते हैं जैसे वो कुदरती बर्फ हों. इसके बाद बारिश होती है. लेकिन इसके कई तरह के परमिशन की जरूरत होती है.
एक बार बारिश कराने की लागत 10 से 15 लाख रुपए
दिल्ली में अगर कृत्रिम बारिश होती है, तो उस पर करीब 10 से 15 लाख रुपए का खर्च आएगा. अब तक दुनिया में 53 देश इस तरह का प्रयोग कर चुके हैं. कानपुर में छोटे विमान से इस आर्टिफिशियल रेन के छोटे ट्रायल किए गए हैं. कुछ में बारिश हुई तो कुछ में सिर्फ बूंदाबांदी. दिल्ली में 2019 में भी आर्टिफिशिल बारिश की तैयारी की गई थी. लेकिन बादलों की कमी और ISRO के परमिशन की वजह से मामला टल गया था.
क्या कहते हैं वैज्ञानिक- कृत्रिम बारिश से प्रदूषण कम होगा?
वैज्ञानिकों के अनुसार कृत्रिम बारिश स्मोग या गंभीर वायु प्रदूषण का स्थाई इलाज नहीं है. इससे कुछ देर के लिए राहत मिल सकती है. 4-5 दिन या 10 दिन. इससे ज्यादा फायदा नहीं होगा. दूसरा खतरा ये है कि अगर अचानक तेज हवा चली तो केमिकल किसी और जिले के ऊपर जा सकता है. आर्टिफिशियल बारिश दिल्ली में होने के बजाय मेरठ में हो गई तो सारी मेहनत बेकार. इसलिए बादलों और हवा के सही मूवमेंट की गणना भी जरूरी है.
इस बारिश की जरूरत है क्या… ?
पिछले कई दिनों से दिल्ली-एनसीआर में स्मोग की लेयर छाई हुई है. भयानक वायु प्रदूषण है. रोकथाम के लिए जो भी तरीके अपनाए गए वो सब फेल होते नजर आ रहे हैं. स्मोक टावर, पानी का छिड़काव, स्मोग गन आदि. इन तरीकों से छोटे इलाके में थोड़ा-बहुत फायदा होता है. लेकिन ज्यादा देर के लिए नहीं. इसलिए बारिश एकमात्र ऐसा उपाय है, जिससे कुछ समय के लिए इस भयानक प्रदूषण से राहत मिल जाएगी.