UN में आया हमास-इजरायल के बीच सीजफायर का प्रस्ताव, जानिए भारत ने वोटिंग से क्यों बनाई दूरी?

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संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में इजरायल हमास संघर्ष को तत्काल रोकने की अपील वाले प्रस्ताव पर वोटिंग में भारत ने हिस्सा नहीं लिया। इस मसौदा प्रस्ताव में गाजा पट्टी में निर्बाध मानवीय पहुंच का भी आह्वान किया गया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 सदस्य देश 10वें इमरजेंसी स्पेशल सेशन के लिए बुलाए गए थे। इस सेशन में जॉर्डन के पेश किए इस मसौदा प्रस्ताव पर वोटिंग की गई। इजरायल और हमास के संघर्ष विराम को लेकर पेश किए गए इस प्रस्ताव का शीर्षक ‘नागरिकों की सुरक्षा और कानूनी और मानवीय दायित्वों को कायम रखना’था।

इस प्रस्ताव के पक्ष में120 देशों ने वोट किया। वहीं, 14 ने इसके खिलाफ वोट दिया तो 45 देशों ने वोटिंग में भाग ही नहीं लिया। इस प्रस्ताव को बांग्लादेश, मालदीव, पाकिस्तान, रूस और दक्षिण अफ्रीका सहित 40 से अधिक देशों ने समर्थन दिया। भारत के अलावा, वोटिंग से दूरी बनाने वाले देशों में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, जापान, यूक्रेन और ब्रिटेन शामिल रहे। अमेरिका और इजरायल ने भी इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया। जॉर्डन द्वारा तैयार किए गए प्रस्ताव में आतंकवादी समूह हमास का कोई उल्लेख नहीं किया गया था।

इस प्रस्ताव पर भारत का वोटिंग में भाग न लेने की वजह पर विदेश मामलों के जानकारों का मानना है कि बीते 10 वर्षों से भारत सरकार की कूटनीति आतंकवाद के खिलाफ रही है। अंतरराष्ट्रीय मंचों से भी भारत के बयान ने उसके इस रुख की पुष्टि की है। इजरायल हमास संघर्ष शुरू होने के बाद इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से फोन पर बातचीत के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हम हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ हैं। भारत के लोग इस मुश्किल घड़ी में इजरायल के साथ हैं। फिलिस्तीन को लेकर भारत का स्टैंड वही है जो इंदिरा या दूसरी सरकारों के समय था। भारत इस समस्या के समाधान के लिए टू स्टेट सॉल्यूशन का समर्थन करता है। संकट की घड़ी में भारत ने फिलिस्तीनियों की मदद के लिए राहत सामाग्री भिजवाई। यही वजह है कि भारत ने इस वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया।

इजरायल-हमास संघर्ष अमेरिका के लिए कूटनीतिक और सैन्य दोनों दृष्टि से एक बड़ा झटका है। इस जंग के शुरू होने से कुछ समय पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने कहा था कि मध्य पूर्व पिछले कुछ समय की तुलना में शांत था। इससे उन्हें चीन के साथ अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता पर ध्यान देने के लिए और अधिक समय मिल सका। लेकिन अब यह स्थिति ज्यादा देर तक बनी रहती नजर नहीं आती है। इस बात पर चीन ने भी गौर किया होगा। इराक, अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया में विफलता हाथ लगने के बाद अमेरिका की यह नीति रही है कि जितना संभव हो सके खुद को मध्य पूर्व से बाहर निकाला जाए। वॉशिंगटन की ईरान नीति का भी लक्ष्य यही था। अमेरिका चाहता है कि इस क्षेत्र को इस तरह से व्यवस्थित किया जाए कि भविष्य में उसके लिए जोखिम भरे हस्तक्षेप जरूरी ना रहें।